जाति का कोढ़
जाति प्रथा ने हमारे समाज में ऊँच-नीच की भावना को मज़बूत करने का काम किया है। मेरे एक मित्र ने हाल में मुझे एक पढ़े-लिखे और 'सुसभ्य' व्यक्ति के बारे में ऐसी बात बताई जिससे यह साबित होता है कि आधुनिक शिक्षा भी इस सामाजिक रोग को दूर नहीं कर पाई है। इस शिक्षित व्यक्ति ने अपने बेटे को इस बात की छूट दे रखी है कि वह अपनी पसंद की किसी लड़की से शादी कर सकता है, लेकिन उनकी एकमात्र शर्त यह है कि लड़की ब्राह्मण होनी चाहिए! विदेश में काम करने वाला उनका लड़का जायदाद से बेदखल किए जाने के डर से उनकी इस शर्त को बिना किसी ना-नुकर के मान रहा है। यह लड़का बाकी सभी मामलों में तो खुद को आधुनिक दिखाता है लेकिन शादी के मामले में वह हज़ारों साल पुरानी सड़ी-गली मानसिकता का गुलाम है। उसे लड़की की पढ़ाई-लिखाई, काबिलियत, सोच आदि से कोई लेना-देना नहीं है।
भारत में अधिकतर लोग आधुनिक तकनीक की सहायता से अपनी ज़िंदगी को बेहतर बनाना चाहते हैं, लेकिन सोच के स्तर पर वे आज भी हज़ारों साल पुराने युग में जी रहे हैं। अब सवाल यह भी उठता है कि जाति जैसी अवैज्ञानिक अवधारणा को हमारे समाज ने हज़ारों सालों से इतना महत्व क्यों दे रखा है। क्या इसकी एकमात्र वजह यह नहीं है कि भारतीय समाज में हमेशा उन लोगों का प्रभुत्व रहा है जो संपत्ति और श्रम को जाति से जोड़कर अपनी स्थिति को मज़बूत बनाए रखने में सफल होते हैं। इन लोगों में ऐसे प्रोफ़ेसर, कलाकार आदि भी शामिल हैं जो अपने मतलब के लिए जाति प्रथा के सवाल पर चुप्पी लगा जाते हैं। इंटरनेट पर अपनी अलग दुनिया में रहने वाले आधुनिक भारतीय जब इस प्रथा का समर्थन करते हैं तो एक बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि इस प्रथा को खत्म करने के लिए केवल शिक्षा पर्याप्त नहीं है। विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र एक-साथ 2-3 'गर्ल फ़्रेंड' बनाते वक्त अपने परिवार से मिला संस्कार भूल जाते हैं, लेकिन शादी के मामले में उन्हें अपनी परंपरा और संस्कृति की याद आने लगती है। सफलता को सब-कुछ मानने की मानसिकता वाले लोगों की संतानों से इससे अधिक क्या उम्मीद की जा सकती है। जहाँ फ़ायदा हो वहाँ अपना जीवन-मूल्य बदल देने की इस आदत ने हमारे समाज का बुरा हाल कर रखा है।
आपको जाति प्रथा का विरोध करने वाले ऐसे लोग भी मिल जाएँगे जो दलितों को सम्मान देने की बात गर्व से बताते हैं। वे खुद को ब्राह्मण मानते हुए दलितों को बराबरी का अधिकार देने से पैदा होने वाला गर्व खोना नहीं चाहते हैं। जाति प्रथा के ऐसे विरोधियों से इस प्रथा की जड़ें मज़बूत हो रही हैं। धरती पर पैदा होने वाला हर इंसान प्रकृति की संतान होता है। उसे किसी जाति का सदस्य घोषित करने वाला समाज अभी सभ्य कहलाने के लायक नहीं हुआ है। भारतीय सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देने वाले लोगों को तब तक अपने देश की परंपरा का गर्व करने का नैतिक अधिकार नहीं मिल सकता है जब तक भारतीय समाज को जाति प्रथा से मुक्ति नहीं मिलेगी।
संयुक्त राष्ट्र के नवीनतम आँकड़ों के अनुसार दलित परिवार में जन्म लेने वाले प्रति हज़ार शिशुओं में 83 शिशु जन्म लेते ही दम तोड़ देते हैं। गैर-दलित परिवारों में यह संख्या 68 है। गैर-दलित परिवारों की व्यय क्षमता दलित परिवारों की तुलना में 42 फ़ीसदी ज़्यादा है। असमानता को प्रथा का जामा पहनाने वाले समाज को इन आँकड़ों पर नज़र डालनी चाहिए और आत्मालोचना करते हुए जाति प्रथा को खत्म करने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने चाहिए।
कमज़ोर वर्गों के शोषण को सामाजिक आधार देने वाली जाति प्रथा के इतनी शताब्दियों से बने रहने की एक और वजह है। इस प्रथा में हर किसी को अपनी विशिष्टता का एहसास होता है। तथाकथित नीची जातियों के सदस्य भी खुद से नीची जाति की खोज कर लेते हैं और अपनी विशिष्ट स्थिति पर गर्व करते हैं। ब्राह्मणों में भी सारस्वत, कान्यकुब्ज आदि कई भेद होते हैं और हर ब्राह्मण खुद को दूसरे ब्राह्मणों से श्रेष्ठ बताता है!
पता नहीं लोग कब यह समझेंगे कि पृथ्वी पर पानी से शुरू हुआ जीवन विकास की करोड़ों साल लंबी जटिल प्रक्रिया पूरी करने के बाद अब जिस मुकाम पर पहुँचा है वहाँ जाति जैसी अवधारणा को इतिहास के कूड़े में फेंक देने का वक्त आ गया है। अगर आज भी इस प्रथा का अंत संभव नहीं हो पा रहा है तो इसका सीधा-सा मतलब यह निकलता है कि हमारा समाज उन लोगों के इशारों पर चलता है जो जाति को लाठी की तरह इस्तेमाल करते हुए कमज़ोरों की भैंस लूटने या ऐसा करने वालों की चापलूसी करने को ही अपनी काबिलियत समझते हैं।
टिप्पणियाँ
You have brought out the complexities of caste system in India very well. There is a reason why modern education is not able to eradicate this system. It is because eventhough ideas such as social equality, irrelevance of caste etc are taught in Indian schools and colleges in many disciplines, these ideas do not form the basis of education. Children learn from their family members that it is important to follow one's traditions which includes caste system. It is the parents who are spending money on the children's education. Often this education is quite expensive, specially if it leads to a high-profile job such as that in a multinational company in a Western company. Thus, the children are under pressure to toe the line of their parents in following the traditions.
In the case of the people from lower economic backgrounds, they want to join the upper-class social group. This leads them to imitate the behaviour pattern of the upper-class as it is a kind of a status symbol in the society. besides, following the caste alliances gives the people the necessary power-equations to climb up the social ladder.
Thus, a lot of complex equations operate in the society to keep on feeding the caste hierarchy. The real reason behind all this is that the Indian mindset is still not democratic. We have adopted a democratic political structure for ourselves, but we have not freed ourselves from the traditional, feudal, enslaving mentality. In order to rise in the society it is necessary to find a "patron" who will promote you. Even if he asks you to do something unethical, you do it because it is beneficial for your economic interests. In the same manner, children follow the line of their parents, because such children are always in an advantage. If you rebel then you lose not only your inheritance but also your family support system. Hence, notions of genuine dissent and critique simply do not exist in Indian society. These notions are moderated by the power-structure which can't be questioned and people don't even want to question the power-structures in the society because it serves their selfish interests.
शर्माते हैं नहीं, जगत में जाति पूछने वाले
जाति - जाति का शोर मचाते केवल कायर क्रूर
बहुत तीखी चोट की है आपने ,और ये बहुत जरूरी भी है
मेरी शुभकामनाएं