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हिंदी फ़िल्में सच पर पर्दा डालने का काम क्यों करती हैं?

क्या फ़िल्में सचमुच समाज की असलियत सामने लाती हैं? मुझे तो ऐसा लगता है कि करोड़ों की लागत से बनने वाली फ़िल्मों में असलियत को छिपाने का ही काम किया जाता है। हमारे समाज में ऊँच-नीच, शोषण आदि का यथार्थ चित्रण करने में फ़िल्मकार या तो असमर्थ होते हैं या किसी दबाव के कारण वे ऐसा नहीं कर पाते हैं। मैं यह नहीं मानता हूँ कि मनोरंजन और सार्थकता का मेल संभव ही नहीं है। ऐसा क्यों होता है कि 'हम आपके हैं कौन', 'मैंने प्यार किया' जैसी फ़िल्मों में ऐसा जीवन दिखाया जाता है जो हर दृष्टि से प्रगतिशील मूल्यों के विरोध का प्रतिनिधित्व करता है। इन फिल्मों के नौकर अपने मालिकों को अपने माँ-बाप से ज़्यादा सम्मान देते हैं और मालिक उन्हें घर के सदस्य का दर्जा देते हैं। क्या भारतीय समाज में सचमुच ऐसा होता है? क्या ऐसी फ़िल्में उन मूल्यों को बढ़ावा देने का काम नहीं करती हैं जिनके कारण हमारा समाज आज भी पिछड़ा हुआ है? अधिकतर हिंदी फ़िल्मों में ऐसी बातों को बढ़ावा दिया जाता है जिन्हें समाज का 'खाया-पीया-अघाया' वर्ग अपने लिए फ़ायदेमंद मानता है। अगर इन फ़िल्मों में दिखाई गई दुनिया को सच