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जब रामू काका है तो मेहनत क्यों?

कुछ दिन पहले एक विज्ञापन में किसी को यह कहते सुना : " जब रामू काका है तो मेहनत क्यों ? जब सॉरी है तो ..." । मेरे दिमाग में यह बात आई कि इस विज्ञापन के आधार पर हर उस व्यक्ति को मेहनत नहीं करनी चाहिए जिसके घर में कोई ' रामू काका ' है। ऐसे विज्ञापनों से समाज को कैसा संदेश दिया जा रहा है ? क्या मेहनत करना सिर्फ़ ' रामू काका ' का काम है ? क्या बाकी लोगों को सॉरी , थैंक्यू कहते हुए ही अपनी ज़िंदगी काटनी चाहिए ? दरअसल , इस स्थिति के लिए हमारा समाज जिम्मेदार है। कोई ऐसे विज्ञापनों पर सवाल नहीं उठाता है। पहले रेडियो पर गानों के कार्यक्रम में दो - चार विज्ञापन आते थे। अब स्थिति यह हो गई है कि विज्ञापनों के बीच एक - दो गाने सुनने को मिल जाते हैं। विज्ञापनों का स्तर बहुत गिर गया है।

प्राइवेट स्कूलों का नरक

प्राइवेट स्कूल का मेरा अनुभव इतना खराब है कि मैं तो पूरे देश में शिक्षा की इन दुकानों को बंद करवाना चाहूँगा। अंग्रेज़ी और सत्ता के घालमेल से उपजी इन दुकानों की घृणित हरकतों का अंदाज़ा तो इन खबरों से ही लग जाता है : http://khabar.josh18.com/news/10369/3 http://khabar.ndtv.com/2009/02/28134202/Delhi-school-280209.html इन स्कूलों में पढ़ाई के स्तर की सच्चाई तो मैं एक छात्र के रूप में भी जान चुका हूँ। जब एक शिक्षक पर दो सौ लड़कों की जिम्मेदारी होती है , तो हर छात्र खुद को उपेक्षित महसूस करता है। सीबीएससी की मान्यता के नाम पर ये स्कूल लाखों - करोड़ों कमा रहे हैं , लेकिन छात्रों के हितों से इनका कोई लेना - देना नहीं होता है। पटना के एक प्राइवेट स्कूल में बड़े अरमानों के साथ दाख़िला लेने के बाद बहुत जल्दी मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया। इस स्कूल में छोटे कमरे में 50-60 छात्रों को पढ़ाया जाता था। हर क्लास में 4-5 सेक्शन होते थे। टीचरों को बच्चों की प