सोने की जंजीर और औरतें
शीर्षक को पहले स्पष्ट कर दूँ। यहाँ सोने की जंजीर का मतलब है "सुख-सुविधा के ऐसे साधन जो बंधन की वजह बन जाते हैं"। जे.एन.यू में पढ़ाई करते समय नारीवाद के कई रूपों को करीब से देखने और समझने का मौका मिला। ऐसी कई छात्राओं से मुलाकात हुई जो समाज में अपनी स्थिति से संतुष्ट नहीं हैं। मगर आज मैं एक ऐसी प्रवृत्ति के बारे में लिखना चाहता हूँ जो औरतों को पुरुषवादी सोच से बाहर नहीं निकलने देती है।
मैंने अपने कैंपस में ऐसी छात्राएं देखीं जो आजाद तो होना चाहती हैं, लेकिन उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वे अपनी आजादी की कीमत चुका सकें। ये तो हम सभी जानते हैं कि अपनी शर्तों पर जीना अक्सर आसान नहीं होता है। इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। मगर क्या अधिकतर लड़कियां ऐसा कर पाती हैं?
औरतों की आजादी के बारे में बात करना एक बात होती है और उस आजादी के रास्ते पर चलना दूसरी। ऐसी छात्राओं के बारे में क्या कहा जा सकता है जो नारीवाद पर दर्जनों पुस्तकें पढने के बाद शादी अपने परिवार द्वारा खोजे गए लड़के के साथ करती हैं? आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसा करते समय उन्हें दहेज देना भी बुरा नहीं लगता है। क्या ऐसा वो अपने माँ-बाप की खुशी के लिए करती हैं? मगर ऐसी खुशी की परवाह क्यों की जाए जो बर्बादी का कारण बनती है।
मुझे कथनी और करनी के इस अंतर की वजह जानना है। क्या इसके पीछे सुख-सुविधा का मोह होता है? सुरक्षित जीवन अपनी ओर खींचता ज़रूर है लेकिन उसमें "जीने लायक" कुछ बचता ही नहीं है। 4 मोबाइल होने के बावजूद आप अकेलापन महसूस कर सकते हैं। बिस्तर खरीद लेने से अच्छी नींद नहीं आ जाती है। पति और संपत्ति मिल जाने के बाद औरतों को क्या उस घुटन का अहसास कभी नहीं होता है जो भारत में लगभग हर घर की असलियत है? अपनी मर्जी से वे कहीं आ-जा नहीं सकती हैं। उनकी अपनी कोई जिंदगी नहीं होती है। वे बस माँ, बहू, भाभी और ननद बन कर रह जाती हैं। उन्हें यह बात कब समझ में आएगी कि जंजीर चाहे सोने की हो या पीतल की, वो जंजीर ही होती है?
किसी विवाहित हिंदू औरत को पहचानना बहुत आसान है क्योंकि वो चूड़ियाँ पहनती हैं या सिंदूर लगाती हैं। लेकिन क्या किसी विवाहित हिंदू पुरुष को पहचानना संभव होता है? नहीं, बिल्कुल नहीं! औरतों ने विवाह की इन निशानियों को इतना महत्त्व दिया है, मगर क्या ये सवाल उनके दिमाग में कभी नहीं आता है कि पुरुषों को विवाह के बाद ऐसा कुछ क्यों नहीं पहनना पड़ता है जो उनके विवाहित होने का सूचक हो? हाँ, एक चीज़ है जो पुरुषों के विवाहित होने का सूचक है, और वह है उनकी "तोंद"! अक्सर यह सुनने में आता है कि फलाने की शादी हो गई है, अब तो वो मोटा होने ही वाला है। और उसे मोटा बनाएगा कौन? उसकी बीबी! यह सुनकर ऐसा लगता है कि वो बीबी सबसे अच्छी मानी जायेगी जो अपने पति को कम-से-कम समय में मोटा कर दे। अच्छी बीबी कहलाने के लिए अगर यह करना पड़े, तो ऐसी बीबी बनने से तो अच्छा है कि औरत शादी के बगैर अपनी जिंदगी बिताये या किसी ऐसे पुरुष को अपना जीवनसाथी बनाए जो उसे एक इंसान के रूप में देखे, बीबी या अपने बच्चों की माँ के रूप में नहीं।
"सुरक्षा के मोह में ही सबसे पहले मरता है आदमी" - राजकमल चौधरी की यह पंक्ति यहाँ बिल्कुल प्रासंगिक है।अगर औरतों को स्वतंत्र होना है, तो उन्हें सुरक्षा का मोह छोड़ना होगा। हो सकता है कि मैं जिसे सुरक्षा का मोह समझ रहा हूँ, वह उनकी मजबूरी हो। मगर मजबूरी के कारण सारे जीवन को दांव पर लगा देना भी सही नहीं है।शादी को अपनी नियति मानने से औरतों का भला कभी नहीं हो पाएगा। शादी तो समाज की वह दमघोंटू संस्था है जिसमें पत्नी मरते दम तक पति की संपत्ति की "इज्जतदार केयरटेकर" बन कर रह जाती है। और इस सच को छुपाने के लिए दुनिया-भर के पर्व-त्यौहार आदि हैं जो औरतों को इस बात की झूटी तसल्ली देते हैं कि वे परिवार चला रही हैं और घर में उन्हें सबसे अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। सच तो यह है कि उन्हें अपने हिसाब से जीने का हक कभी नहीं मिलता है।
मैंने अपने कैंपस में ऐसी छात्राएं देखीं जो आजाद तो होना चाहती हैं, लेकिन उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वे अपनी आजादी की कीमत चुका सकें। ये तो हम सभी जानते हैं कि अपनी शर्तों पर जीना अक्सर आसान नहीं होता है। इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। मगर क्या अधिकतर लड़कियां ऐसा कर पाती हैं?
औरतों की आजादी के बारे में बात करना एक बात होती है और उस आजादी के रास्ते पर चलना दूसरी। ऐसी छात्राओं के बारे में क्या कहा जा सकता है जो नारीवाद पर दर्जनों पुस्तकें पढने के बाद शादी अपने परिवार द्वारा खोजे गए लड़के के साथ करती हैं? आश्चर्य की बात तो यह है कि ऐसा करते समय उन्हें दहेज देना भी बुरा नहीं लगता है। क्या ऐसा वो अपने माँ-बाप की खुशी के लिए करती हैं? मगर ऐसी खुशी की परवाह क्यों की जाए जो बर्बादी का कारण बनती है।
मुझे कथनी और करनी के इस अंतर की वजह जानना है। क्या इसके पीछे सुख-सुविधा का मोह होता है? सुरक्षित जीवन अपनी ओर खींचता ज़रूर है लेकिन उसमें "जीने लायक" कुछ बचता ही नहीं है। 4 मोबाइल होने के बावजूद आप अकेलापन महसूस कर सकते हैं। बिस्तर खरीद लेने से अच्छी नींद नहीं आ जाती है। पति और संपत्ति मिल जाने के बाद औरतों को क्या उस घुटन का अहसास कभी नहीं होता है जो भारत में लगभग हर घर की असलियत है? अपनी मर्जी से वे कहीं आ-जा नहीं सकती हैं। उनकी अपनी कोई जिंदगी नहीं होती है। वे बस माँ, बहू, भाभी और ननद बन कर रह जाती हैं। उन्हें यह बात कब समझ में आएगी कि जंजीर चाहे सोने की हो या पीतल की, वो जंजीर ही होती है?
किसी विवाहित हिंदू औरत को पहचानना बहुत आसान है क्योंकि वो चूड़ियाँ पहनती हैं या सिंदूर लगाती हैं। लेकिन क्या किसी विवाहित हिंदू पुरुष को पहचानना संभव होता है? नहीं, बिल्कुल नहीं! औरतों ने विवाह की इन निशानियों को इतना महत्त्व दिया है, मगर क्या ये सवाल उनके दिमाग में कभी नहीं आता है कि पुरुषों को विवाह के बाद ऐसा कुछ क्यों नहीं पहनना पड़ता है जो उनके विवाहित होने का सूचक हो? हाँ, एक चीज़ है जो पुरुषों के विवाहित होने का सूचक है, और वह है उनकी "तोंद"! अक्सर यह सुनने में आता है कि फलाने की शादी हो गई है, अब तो वो मोटा होने ही वाला है। और उसे मोटा बनाएगा कौन? उसकी बीबी! यह सुनकर ऐसा लगता है कि वो बीबी सबसे अच्छी मानी जायेगी जो अपने पति को कम-से-कम समय में मोटा कर दे। अच्छी बीबी कहलाने के लिए अगर यह करना पड़े, तो ऐसी बीबी बनने से तो अच्छा है कि औरत शादी के बगैर अपनी जिंदगी बिताये या किसी ऐसे पुरुष को अपना जीवनसाथी बनाए जो उसे एक इंसान के रूप में देखे, बीबी या अपने बच्चों की माँ के रूप में नहीं।
"सुरक्षा के मोह में ही सबसे पहले मरता है आदमी" - राजकमल चौधरी की यह पंक्ति यहाँ बिल्कुल प्रासंगिक है।अगर औरतों को स्वतंत्र होना है, तो उन्हें सुरक्षा का मोह छोड़ना होगा। हो सकता है कि मैं जिसे सुरक्षा का मोह समझ रहा हूँ, वह उनकी मजबूरी हो। मगर मजबूरी के कारण सारे जीवन को दांव पर लगा देना भी सही नहीं है।शादी को अपनी नियति मानने से औरतों का भला कभी नहीं हो पाएगा। शादी तो समाज की वह दमघोंटू संस्था है जिसमें पत्नी मरते दम तक पति की संपत्ति की "इज्जतदार केयरटेकर" बन कर रह जाती है। और इस सच को छुपाने के लिए दुनिया-भर के पर्व-त्यौहार आदि हैं जो औरतों को इस बात की झूटी तसल्ली देते हैं कि वे परिवार चला रही हैं और घर में उन्हें सबसे अधिक महत्त्व दिया जा रहा है। सच तो यह है कि उन्हें अपने हिसाब से जीने का हक कभी नहीं मिलता है।
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