अपनों द्वारा उपेक्षित हिंदी

हिंदी ऐसी माँ की तरह है जिसके बच्चे उससे प्यार नहीं करते हैं यह एक कड़वा सच है फादर कामिल बुल्के जैसे हिंदी-प्रेमी ने हिंदी बोलने वालों के बारे में कहा था कि वे अपनी भाषा से उतना प्यार नहीं करते हैं जितना प्यार अन्य भाषा बोलने वाले अपनी भाषा से करते हैं अधिकतर हिंदी भाषी ऐसी संतान की तरह होते हैं जो कमाने के लिए घर से निकल कर बाकी पूरी दुनिया को तो अपना लेती है, लेकिन अपने घर की कोई ख़बर नहीं लेती है

जीवन के अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रसंगों में हम अपनी भाषा का प्रयोग नहीं कर सकते हैं। ऐसे प्रसंगों में हम अंग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं। अंग्रेज़ी एक सीमा तक हमारी मदद कर सकती है, मगर यह हमारी भावनाओं को अभिव्यक्त करने का अच्छा माध्यम नहीं हो सकती है। इसकी वजह बिल्कुल साफ़ है। भाषा हमारे संस्कारों से जुड़ी होती है। यह हमें अपनी माँ, अपने मोहल्लेवालों, अपने रिश्तेदारों आदि से मिलती है, लेकिन अंग्रेज़ी हमें आस-पड़ोस से नहीं मिलती है। इसे हम स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि में सीखते हैं और सीखने की यह प्रक्रिया अक्सर स्वैच्छिक नहीं होती है। इसके सीखने का सबसे बड़ा कारण यह होता है कि अंग्रेज़ी के बिना हम बाज़ार में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करा सकते हैं। अंग्रेज़ी उस आंटी की तरह होती है जो पड़ोसी के बच्चों की आवश्यकताओं को अच्छी तरह नहीं समझ पाती है। वह कभी-कभार उनका ध्यान तो रख सकती है, लेकिन कहीं कोई कमी रह जाती है। मैं अंग्रेज़ी सीखने का विरोध नहीं कर रहा हूँ। मैं उस गुलाम मानसिकता का विरोध कर रहा हूँ जो तथाकथित प्रगति के नाम पर ऐसी हर चीज़ को गले लगाती है जो हमें आगे ले जाने के बदले पीछे ले जाती है। अंग्रेज़ी सीखने के लिए क्या हिंदी की उपेक्षा करना आवश्यक है?

हिंदी बोलने वाले इस संपन्न और मधुर भाषा के प्रति उदासीन क्यों हैं? शायद इसका जवाब हमारे इतिहास में छिपा है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी ने हमारी रचनात्मकता और स्वाभिमान पर नकारात्मक असर डाला है। शायद हम भारतीयों को गुलामी की आदत हो गई है। कुछ लोग तो बड़े गर्व से बताते हैं कि उन्हें हिंदी समझने में दिक्कत होती है। ऐसे लोग बचपन से हिंदी के माहौल में पढ़े होते हैं, लेकिन अंग्रेज़ी के अन्धभक्त होने के कारण उन्हें हिंदी का प्रयोग करना अपने "स्टेटस" को कम करने जैसा लगता है। गुलाम मानसिकता के शिकार लोगों से और क्या उम्मीद की जा सकती है?

हिंदी के प्रति उदासीनता के कई प्रमाण हैं। जब यह भाषा अपने लोगों द्वारा उपेक्षित है, तो अन्य लोगों से क्या शिकायत हो सकती है? इस उपेक्षा के कुछ उदाहरण नीचे दिए गए हैं:

  1. अभी हाल में जारी किया गया मोज़िल्ला फायरफॉक्स ३ हिंदी भाषा में उपलब्ध नहीं है। पंजाबी और गुजराती में इसका अनुवाद हो चुका है, लेकिन हिंदी में स्वैच्छिक अनुवादकों की कमी के कारण इसका हिंदी संस्करण उपलब्ध नहीं हो पाया है। क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हिंदी भाषियों को अपनी भाषा से लगाव नहीं है?
  2. विकिपीडिया में हिंदी में 20287 लेख हैं। हिंदी लगभग 68 करोड़ लोगों की मातृभाषा है। इसकी तुलना में इंडोनीशियाई बोलने वालों की संख्या बहुत कम है। यह लगभग 20 करोड़ लोगों की मातृभाषा है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि विकिपीडिया में इंडोनिशियाई में 84886 लेख हैंमैं अभी जर्मन और इतालवी की बात नहीं कर रहा हूँ। ये विकसित देशों की भाषाएँ हैं। मैंने इंडोनीशियाई का उदाहरण इसलिए दिया है क्योंकि यह हमारे जैसे विकासशील देश में बोली जाती है।
  3. भारत में आने वाले विदेशी नेता अपनी भाषा में बात करते हैं और इस दौरान संवाद स्थापित करने की जिम्मेदारी दुभाषिया की होती है। हमारे नेता अपनी बात अंग्रेज़ी में कहते हैं। क्या उनका आत्मसम्मान इस कदर मर चुका है कि वे अपनी भाषा में बात भी नहीं कर सकते हैं?
  4. हिंदी के अधिकतर समाचारपत्रों और पत्रिकाओं में अस्वाभाविक हिंदी का प्रयोग किया जाता है। इनके अधिकतर पाठ अंग्रेज़ी से अनूदित होते हैं और अनुवाद का स्तर प्रायः संतोषजनक नहीं होता है। ऐसी हिंदी में अंग्रेज़ी के शब्दों का अनावश्यक प्रयोग किया जाता है। हर भाषा अन्य भाषाओँ से प्रभावित होती है, लेकिन हिंदी तो अंग्रेज़ी से आतंकित ही होती आई है। "आतंकित होने" और "प्रभावित होने" में बहुत अंतर है।
ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे हिंदी के प्रति उदासीनता के बारे में पता चलता है। सवाल यह है कि क्या हम इस स्थिति में परिवर्तन लाने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर प्रयत्न नहीं कर सकते हैं? अगर हम लेख नहीं लिख सकते हैं, तो कम-से-कम अच्छे अनुवाद के माध्यम से इंटरनेट पर हिंदी के पाठों की संख्या में वृद्धि तो कर ही सकते हैं। हिंदी को स्वाभाविक बनाने के लिए ऐसे समाचारपत्रों की आलोचना करनी चाहिए जो हिंदी को अंग्रेज़ी की "गरीब सहेली" के रूप में प्रस्तुत करते हैं। हिंदी को हिंगलिश बनाने की प्रवृत्ति पर रोक लगानी होगी। ऐसा तभी हो सकेगा जब हिंदी का पाठक-वर्ग जागरूक बनेगा। हमें जनविरोधी मीडिया को यह बताना होगा कि हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा है, "नेशनल लैंग्वेज" नहीं।








टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
aapne bilkul sahi likha hai. me bhi aksar sabhi se yhi khati hu ki jo bhasha hamari hai use log pasand hi nhi karte.isse jada saram ki bat or kya ho sakti hai.
अनुनाद सिंह ने कहा…
आपने हिन्दी की स्थिति का बहुत सटीक cइत्रण प्रस्तुत किया है। आपके विश्लेषण से सहमत हुए बिना नहीं रहा जा सकता। गांधी सरीखे एक महावैद्य की जरूरत है , जो गुलामी के इस जीर्ण रोग का कोई कारगर उपाय निकाल सके।
Udan Tashtari ने कहा…
सही कह रहे हैं.
हरिराम ने कहा…
नकारात्मक भावनाओं से ऊबरें। आगामी नए विश्वभर में एक ही भाषा होगी - 'हिन्दी। सिर्फ इसकी कुछ तार्किक तकनीकी समस्याओं का समाधान करना है।

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