अरे, तुम तो अपनी जाति के निकले!
जे.एन.यू. के बारे में सुना था कि यहाँ लोग कुछ अलग तरह से सोचते हैं। यह जानकर अच्छा लगा था कि मैं ऐसी जगह आ गया हूँ जहाँ आधुनिक व मानवतावादी मूल्यों को महत्त्व दिया जाता है। मगर मेरी यह धारणा गलत निकली। यहाँ के अधिकतर छात्र जाति और धर्म के आधार पर बँटे हुए हैं। यह जातिवाद होस्टल के मेस में भी दिखता है। कम-से-कम मेरे होस्टल में तो ऐसा ही था। ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार वगैरह एक साथ बैठकर खाते थे। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्र दूसरी जगह बैठते। मुसलमानों के बैठने की जगह दूसरी थी। यह विभाजन सबको स्वाभाविक लगता ! किसी ने यह नहीं पूछा कि लड़के अपने सेंटर या स्कूल के साथियों के साथ क्यों नहीं बैठते हैं!
यहाँ के चुनाव में जाति और धर्म बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चीन, अमेरिका आदि की बात करते हुए सबकी नज़र वोट पर ही रहती है। अनेक छात्र वोट देते समय आपसी फायदे को राजनीतिक विचारधारा से अधिक महत्त्व देते हैं। वोट की इस राजनीति में झूट, दबाव और चापलूसी की मदद से काम निकालने में कोई किसी से पीछे नहीं होता है।
कैंपस में जातिगत टिप्पणी करने वालों की कमी नहीं है। यहाँ मारपीट की ऐसी कई घटनाएँ हुईं हैं जिनमें जाति के नाम पर गाली-गलौज की गई। कुछ लोग यह कहते हैं कि भारत में अब जातिवाद का अस्तित्व नहीं के बराबर है। ऐसा कहने वालों को जे.एन.यू. आकर यह अच्छी तरह मालूम हो जाएगा कि भारत में जातिवाद का जहर किस हद तक फैल चुका है।
पहले मैंने सिर्फ़ यह सुना था कि एक जाति-विशेष के अधिकतर छात्र हर होस्टल में अपनी जाति के छात्र से परिचित होते हैं। बाद में जब मैंने ख़ुद अपनी आंखों से यह सब देखा तब मुझे जाति के इस अद्भुत भाईचारे को देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। यही भाईचारा अगर जाति के आधार पर नहीं होकर केवल छात्र होने के नाते होता, तो हमारा देश आज कितना आगे होता!
मैंने यह भी महसूस किया कि दलित उद्धार के नाम पर कई छात्र जातिवाद को और अधिक बढ़ावा देते हैं। ये लोग अलग-थलग रहकर जातिवाद की जड़ों को मजबूत बनाते हैं। क्या जाति की अवधारणा को पूरी तरह नकारकर इस जहर को समाज से बाहर निकाल फेंकने के बदले अपनी जाति को स्वीकार करते हुए वोट की राजनीति करना सही है? क्या इनके लिए यह कहना असंभव है कि हम किसी जाति-वाति में यकीन नहीं करते। ये लोग ऐसा कहने के बदले यह कहते हैं कि हमारी यह जाति है और हम इस जाति के स्वाभिमान की रक्षा करते हुए किसी सीमा तक जा सकते हैं। क्या ऐसा करते हुए ये लोग जातिवाद की अवधारणा को अपना अप्रत्यक्ष समर्थन नहीं देते हैं?
यहाँ के चुनाव में जाति और धर्म बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। चीन, अमेरिका आदि की बात करते हुए सबकी नज़र वोट पर ही रहती है। अनेक छात्र वोट देते समय आपसी फायदे को राजनीतिक विचारधारा से अधिक महत्त्व देते हैं। वोट की इस राजनीति में झूट, दबाव और चापलूसी की मदद से काम निकालने में कोई किसी से पीछे नहीं होता है।
कैंपस में जातिगत टिप्पणी करने वालों की कमी नहीं है। यहाँ मारपीट की ऐसी कई घटनाएँ हुईं हैं जिनमें जाति के नाम पर गाली-गलौज की गई। कुछ लोग यह कहते हैं कि भारत में अब जातिवाद का अस्तित्व नहीं के बराबर है। ऐसा कहने वालों को जे.एन.यू. आकर यह अच्छी तरह मालूम हो जाएगा कि भारत में जातिवाद का जहर किस हद तक फैल चुका है।
पहले मैंने सिर्फ़ यह सुना था कि एक जाति-विशेष के अधिकतर छात्र हर होस्टल में अपनी जाति के छात्र से परिचित होते हैं। बाद में जब मैंने ख़ुद अपनी आंखों से यह सब देखा तब मुझे जाति के इस अद्भुत भाईचारे को देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। यही भाईचारा अगर जाति के आधार पर नहीं होकर केवल छात्र होने के नाते होता, तो हमारा देश आज कितना आगे होता!
मैंने यह भी महसूस किया कि दलित उद्धार के नाम पर कई छात्र जातिवाद को और अधिक बढ़ावा देते हैं। ये लोग अलग-थलग रहकर जातिवाद की जड़ों को मजबूत बनाते हैं। क्या जाति की अवधारणा को पूरी तरह नकारकर इस जहर को समाज से बाहर निकाल फेंकने के बदले अपनी जाति को स्वीकार करते हुए वोट की राजनीति करना सही है? क्या इनके लिए यह कहना असंभव है कि हम किसी जाति-वाति में यकीन नहीं करते। ये लोग ऐसा कहने के बदले यह कहते हैं कि हमारी यह जाति है और हम इस जाति के स्वाभिमान की रक्षा करते हुए किसी सीमा तक जा सकते हैं। क्या ऐसा करते हुए ये लोग जातिवाद की अवधारणा को अपना अप्रत्यक्ष समर्थन नहीं देते हैं?
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