जब रामू काका है तो मेहनत क्यों?
कुछ दिन पहले एक विज्ञापन में किसी को यह कहते सुना : " जब रामू काका है तो मेहनत क्यों ? जब सॉरी है तो ..." । मेरे दिमाग में यह बात आई कि इस विज्ञापन के आधार पर हर उस व्यक्ति को मेहनत नहीं करनी चाहिए जिसके घर में कोई ' रामू काका ' है। ऐसे विज्ञापनों से समाज को कैसा संदेश दिया जा रहा है ? क्या मेहनत करना सिर्फ़ ' रामू काका ' का काम है ? क्या बाकी लोगों को सॉरी , थैंक्यू कहते हुए ही अपनी ज़िंदगी काटनी चाहिए ? दरअसल , इस स्थिति के लिए हमारा समाज जिम्मेदार है। कोई ऐसे विज्ञापनों पर सवाल नहीं उठाता है। पहले रेडियो पर गानों के कार्यक्रम में दो - चार विज्ञापन आते थे। अब स्थिति यह हो गई है कि विज्ञापनों के बीच एक - दो गाने सुनने को मिल जाते हैं। विज्ञापनों का स्तर बहुत गिर गया है।