कानून बड़ा या इनसान

कभी-कभी यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कानून इनसान के लिए बना है या इनसान कानून के लिए। जर्मनी की एक दंपति की व्यथा सुनकर आप भी शायद इस सवाल से जूझने को मजबूर हो जाएँगे। यह दंपति संतान पैदा करने में असमर्थ थी। अपनी संतान का मुँह देखने की उसकी चाहत भारत आकर पूरी हुई। यहाँ आकर इस दंपति को एक महिला की कोख से पैदा हुए जुड़वा बच्चों के रूप में अपने मन की सौगात मिल गई। लेकिन उनकी यह खुशी केवल कुछ पलों की थी क्योंकि वे अपने बच्चों की नागरिकता के कानूनी पचड़े में फँस गए और अभी तक वे न्यायालयों के चक्कर लगा रहे हैं।


जर्मनी में किराए की कोख से बच्चा पैदा करने को कानूनी मान्यता नहीं मिली है। यही वजह है कि दंपति अपने बच्चों को वापस जर्मनी ले जाने में असमर्थ है। इन बच्चों को अभी किसी देश की नागरिकता नहीं मिली है। जर्मनी ने इस दंपति के लिए अपने कानून में किसी तरह की ढील देने से इनकार कर दिया है। इधर पैसों की कमी के कारण बच्चों की जर्मन माँ को अपने देश वापस जाकर कमाई करने का कदम उठाना पड़ा। क्या हम उस माँ की बेचैनी को महसूस कर सकते हैं जो बेवजह के कानूनी झमेलों के कारण अपने बच्चों के साथ नहीं रह पा रही है? दुनिया का ऐसा हर कानून बेकार है जो एक माँ को अपनी संतान से दूर करता है।

इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है। नौ महीने दो बच्चों को अपने पेट में रखने वाली महिला को भी अपनी संतानों से लगाव हो गया होगा। अपनी कोख को किराए पर देने वाली औरतों की मजबूरी को हमारा समाज समझना चाहता है या नहीं, हमें इस सवाल से भी जूझना होगा। यह सच है कि जीवन बहुत जटिल है और हम ऐसे प्रश्नों का कोई आसान जवाब नहीं दे सकते हैं, लेकिन हमें यह भी सोचना होगा कि गरीबी के कारण अपने मातृत्व का त्याग करने वाली औरतों को भी सामान्य जीवन जीने का अधिकार है।

अभी हम जिस जर्मन दंपति की बात कर रहे हैं उसे अपनी सरकार से भी कोई मदद नहीं मिल रही है। भारत में न्यायालयों की हालत तो आप जानते ही हैं। अब देखना यह है कि कानून और इनसान की इस लड़ाई में जीत किसकी होती है।  

टिप्पणियाँ

Archana ने कहा…
This is a very important post. There are many issues involved here.One, the issue of the poor woman in India who has to sell her motherhood for money - most probably got much less money than a European mother would have got. Hence, this is double exploitation.

Two, the Christian world is grappling with the notion of surrogacy as a religious ethical issue. Many Christian societies still have not been able to accept surrogacy as a need of today's times. This is despite the fact that there has been a separation of State from the Church in the West and religion is theoretically not expected to encroach upon the secular life of the people. However, the State can't make laws purely on the basis of modern values even in the secular Western democracies. It is important to note here that India allows surrogacy as a legal option. The religious issue doesn't exist here in this matter.

Three, amongst the European nations, Germany is especially a country which despite declining population, allows permanent residency to the alien migrants, but doesn't grant citizenship to them. In order to have a German citizenship, one must be of German blood. This is a direct issue of racism. In this particular case, the child is of the German parents' blood, but born from an Indian mother. hence, the German laws don't want to accept it as their citizen because it has been raised in the womb of an Indian mother - who is not only not German, but also non-White and belonging to the Third World. Laws such as these are not only outdated, but they show the worst kind of xenophobia and hatred for the Third World.

It is important to note here that the Indian court has rightfully recognised the child as of German blood and therefore not an Indian - since that's what it is. In order for it to get an Indian passport, it has to go through the normal process of naturalisation which any foreign goes through.
Suyash Suprabh ने कहा…
अर्चना जी, आपने इस बहस को नई दिशा दी है। यूरोपीय देशों को अपने पूर्वाग्रह छोड़कर आधुनिक मूल्यों को अपनाना चाहिए।

नागरिकता के लिए नस्ल को आधार बनाना हर दृष्टि से गलत है।

गरीबी के कारण नारी का मातृत्व भी मजबूरी, घुटन आदि का दूसरा नाम बनकर रह जाता है। हमें यह भी देखना होगा कि कोख का व्यवसाय करने वाले किस तरह औरतों का शोषण कर रहे हैं। आपने इन औरतों के दोहरे शोषण के बारे में जो कहा है उससे मैं पूरी तरह सहमत हूँ।
S C Mudgal ने कहा…
Yahan lagta yeh hai ki Archanaji Jarman Mahila ke dukhon se jyaada vyathit hain jabki bhartiya mahila se bhi unhein thodi hamdardi hai jo sirf tabtak hi hai jab tak ki jarman mahila ko "apne" Bachche saath le jaane ki sweekriti nahin mil jaati.

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