सत्ताधारी वर्ग पेट और भाषा से ऐसे खेलता है

पहले पेट की बात करते हैं। आजकल सरकार मटर की दाल का गुणगान करने में लगी हुई है। अरहर की दाल बहुत महँगी हो गई है और अब तो ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में केवल गंधर्व (सत्ताधारी) ही इस दाल से अपनी सेहत बना सकेंगे। किसानों को गरीबी के कारण आत्महत्या करने को मजबूर करने वाली सरकारों (केवल वर्तमान सरकार को दोष देना ठीक नहीं होगा) ने अब यह साफ़-साफ़ कह दिया है कि हमें मटर की दाल खाना शुरू कर देना चाहिए। सरकार हमें यह बताना चाहती है कि महँगाई के बढ़ने और उदारवादी आर्थिक नीतियों में कोई संबंध नहीं है। अब देखना यह है कि महँगाई पर रोक लगाने में असमर्थ सरकारें आने वाले सालों में हमें क्या-क्या खाने की सलाह देंगी। सत्ताधारी वर्ग को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि जनता क्या खाना चाहती है।

सत्ताधारी वर्ग गंधर्वों का जीवन जीता है। इस वर्ग के गंधर्वों को हम जैसे साधारण मनुष्यों से हमेशा यह शिकायत होती है कि हम तिल का ताड़ बनाते रहते हैं। गंधर्वों को लगता है कि किसान भूख या गरीबी के कारण आत्महत्या नहीं करता है। इन गंधर्वों का तलवा चाटने वाले सरकारी अधिकारी और पत्रकार हमें बताते हैं कि आत्महत्या की खबर केवल अफवाह है। इनके अनुसार किसान केवल अपनी पत्नियों के अवैध संबंध या ऐसे अन्य कारणों से आत्महत्या करते हैं जिनका भूख से कोई संबंध नहीं होता है।

अब हम भाषा की बात करते हैं। सत्ताधारी वर्ग की हर नीति को प्रगतिशील बताने वाला मीडिया जनता की भाषाओं को विकृत करने का काम पूरी मुस्तैदी से कर रहा है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के अधिकतर अखबारों में अनावश्यक रूप से रोमन लिपि और अंग्रेज़ी के प्रयोग से यह बात साबित होती है कि मीडिया के बहुत बड़े वर्ग को सत्ता की गुलामी करने में कोई परेशानी नहीं है। हमें मीडिया यह बताने की कोशिश करता है कि उसकी अधकचरी भाषा का कोई विकल्प मौजूद नहीं है। हिंदी अखबारों में 'स्टूडंट मर्डर केस सॉल्व' जैसी भाषा के प्रयोग से भी यही बात साबित होती है कि हिंदी के बड़े अखबारों को भी अंग्रेज़ी की गुलामी भाने लगी है।
सत्ताधारी वर्ग को ऐसी हर बात से डर लगता है जिससे उसके प्रभुत्व को चुनौती मिलती है। जनता की भाषाओं को विकृत करने की साजिश के पीछे भी यही डर काम करता है। जनता अपनी बात अपनी भाषा में सामने रखती है। उसकी भाषा को विकृत बनाकर उसकी अभिव्यक्ति पर ताला लगा दिया जाता है। भाषा अभिव्यक्ति का साधन होती है और जब साधन को ही अधकचरा बना दिया जाए तब अभिव्यक्ति कैसी होगी यह आप आसानी से समझ सकते हैं। लोग साधन या भाषा के औचित्य पर ही अपनी ऊर्जा बर्बाद कर देते हैं और जो अभिव्यक्ति हालात को समझने और बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती थी उसकी भ्रूण हत्या हो जाती है।

इस तरह हम देखते हैं कि सत्ताधारी वर्ग जनता की शारीरिक और बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के बदले उसे दोयम दर्जे के विकल्पों से संतुष्ट रहने की सलाह (ज़रूरत पड़ने पर धमकी) देता है। आप लाख कह लें कि हमें मटर की दाल के बदले अरहर की दाल खानी है या 'स्टूडंट मर्डर केस सॉल्व' के बदले 'छात्र की हत्या का मामला सुलझा' जैसी भाषा का प्रयोग करना है, सत्ताधारी वर्ग वही करेगा जिससे उसकी सत्ता सुरक्षित रहेगी। अब यह हमारे ऊपर हैं कि हम इस वर्ग की हर बात सिर झुकाकर मान लें या अपने विवेक को ज़िदा रखते हुए उसका विरोध करें।

टिप्पणियाँ

Reflections... ने कहा…
I agree with the language part of it. But with the first part, one has to understand the intricacies of the problem. The farmer commits suicide because he is in debt and he is in debt because the food prices have to be kept low.

If the government raises the food prices, the population that buys the food - rich, middle class and poor alike - will protest against the government because they will not like to buy the food at a high price. The rising prices and the farmers committing suicide are in fact in opposition to each other.

There are more issues involved in this. It's not as if the farmer simply brings the food to the market and sells it at a low prices. there is a long chain of intermediaries involved who buy the food from the farmer at a low price and sell them at a high price in the market without doing any work in the fields.

One has to understand that it is these intermediaries who are exploiting the farmers. There is no point in blaming the government for everything. We should also recognise where we are failing. The intermediaries are also part of the common population of this country - many of them are not necessarily rich while some of them are rich. Unless we remove the system of intemediaries from our business sectors of all kinds, this problem will remain and the person who actually produces the goods will be in a disadvantageous situation.

Then the question is, what will the intermediaries do? They have to understand that they should engage in good policies in business and they should not exploit the system to their advantage. Unless we become concientious citizens we can't make any changes just by blaming the government for everything. This is a malady in India that everyone is talking about rights but no one seriously wants to engage in honest work.
बेनामी ने कहा…
Genial post and this enter helped me alot in my college assignement. Thank you for your information.
Randhir Singh Suman ने कहा…
nice.........................

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

हिंदी समुदाय यानी...

कुछ तो बात है कि हस्ती नहीं मिटती जेएनयू की

मीडिया और साहित्य की भिड़ंत का नज़ारा