तेरी गठरी में लागा प्रशासन, छात्र जाग जरा...
आप सोच रहे होंगे कि इस अजीब शीर्षक में गठरी का क्या मतलब है। यह गठरी भारत और दुनिया भर के उन छात्रों की 'सामूहिक शक्ति' है जिसके बल पर वे सत्ता की दमनकारी नीतियों को बदलने में सफलता पाते आए हैं। इस सामूहिक शक्ति से डरने वाली सत्ता नियम-कायदों के नाम पर छात्रों की आवाज़ दबाने का षड्यंत्र करती है। अभी जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) में भी ऐसी ही एक कोशिश हुई है।
जेएनयू को भारत के उन चुनिंदा विश्वविद्यालयों में गिना जाता है जहाँ छात्र केवल अपने स्वार्थ के लिए नहीं पढ़ते हैं। यहाँ के छात्र मज़दूरों, अल्पसंख्यकों आदि के अधिकारों के लिए संघर्ष करने से कभी पीछे नहीं हटे हैं और उनकी इस प्रगतिशीलता से घबराने वाले सत्ताधारियों की भी कमी नहीं है। हाल में यहाँ के प्रशासन ने एक ऐसे नियम की घोषणा की है जिसका एकमात्र उद्देश्य छात्रों की गतिविधियों पर पाबंदी लगाना है। इस नियम के अनुसार छात्रों को होस्टल में कोई कार्यक्रम आयोजित करने के लिए प्रशासन से एक सप्ताह पहले अनुमति लेनी होगी। छात्रों को यह भी बताना होगा कि कार्यक्रम में कितने लोग शामिल होंगे। यही नहीं, उन्हें प्रशासन को यह भी बताना होगा कि कार्यक्रम में प्रश्नोत्तर सत्र होगा या नहीं। अगर प्रशासन को लगता है कि कार्यक्रम से देश की आंतरिक सुरक्षा, राष्ट्रीय एकता आदि पर गलत असर पड़ सकता है तो वह इसे आयोजित करने की अनुमति नहीं देगा। मान लीजिए, कैंपस में उत्पीड़ित मुस्लिम, आदिवासी या अन्य कोई समूह आकर अपनी बात छात्रों के सामने रखना चाहता है तो प्रशासन इसे अपनी मर्ज़ी से 'अवांछित गतिविधि' घोषित कर सकता है। अगर समाज के दबे-कुचले वर्ग की आवाज़ को दबाने की यह साजिश कामयाब हो जाती है तो यह सचमुच भारत के प्रजातंत्र का काला अध्याय होगा।
जेएनयू में छात्रों ने न केवल 1975 के आपातकाल से लेकर गुजरात के गोधरा कांड का विरोध किया है बल्कि कैंपस में गरीब छात्रों, मज़दूरो, अल्पसंख्यकों आदि के अधिकारों के लिए भी हमेशा संघर्ष किया है और प्रशासन के विरोध और असहयोग के बावजूद सफलता पाई है। समाज के अनेक बुद्धिजीवी इस विश्वविद्यालय से बौद्धिक ऊर्जा पाते हैं और यही बात कुछ लोगों को पच नहीं रही है। प्रशासन ने जो नया नियम बनाया है उसमें यह भी कहा गया है कि कैंपस में उन फ़िल्मों के प्रदर्शन की भी अनुमति नहीं है जिन्हें सेंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र नहीं दिया है। कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जो सेंसर बोर्ड की नज़र में विवादास्पद हो सकती हैं, लेकिन भारत का बौद्धिक केंद कहे जाने वाले जेएनयू में छात्रों को अव्यावसायिक रूप से ये फ़िल्में दिखाए जाने पर प्रशासन को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मुझे याद है कि गुजरात में हुए नरसंहार के बाद जब जेएनयू में आनंद पटवर्धन की 'फ़ाइनल सॉल्यूशन' दिखाई गई थी तब इस कैंपस में दंगों पर स्वस्थ बहस हुई थी। जेएनयू में आदिवासियों, मज़दूरों आदि के शोषण पर सैंकड़ों वृत्तचित्र दिखाए गए हैं। शायद प्रशासन यह नहीं समझ पा रहा है कि ऐसे वृत्तचित्रों या फ़िल्मों पर पाबंदी लगाकर समाज का कोई भला नहीं होने वाला है।
सत्तर के दशक में लाखों अमेरिकी छात्रों ने अपने देश की साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध करने के लिए हड़ताल की थी। उनके इस विरोध का अमेरिकी सेना पर भी असर पड़ा था और हजा़रों सैनिकों ने वियतनाम युद्ध में भाग लेने से इनकार कर दिया था। 1954 में फ़्रांस और अल्जीरिया में हज़ारों छात्रों ने अल्जीरिया पर फ़्रांस के आक्रमण के विरोध में हड़ताल की थी। उनके इस विरोध ने अल्जीरिया में आज़ादी के संघर्ष को नई ऊर्जा दी। अल्जीरिया की आज़ादी में छात्रों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। छात्रों के विरोध के कारण विश्व के तमाम देशों में सत्ताधारियों को अपनी नीतियाँ बदलनी पड़ी हैं। हमें सत्ता की विकृतियों की आलोचना करने वाले छात्रों की आज़ादी छिनने की हर कोशिश का विरोध करना होगा। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा समाज धीरे-धीरे उन तमाम विकृतियों का शिकार हो जाएगा जिनकी हम अभी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
जेएनयू को भारत के उन चुनिंदा विश्वविद्यालयों में गिना जाता है जहाँ छात्र केवल अपने स्वार्थ के लिए नहीं पढ़ते हैं। यहाँ के छात्र मज़दूरों, अल्पसंख्यकों आदि के अधिकारों के लिए संघर्ष करने से कभी पीछे नहीं हटे हैं और उनकी इस प्रगतिशीलता से घबराने वाले सत्ताधारियों की भी कमी नहीं है। हाल में यहाँ के प्रशासन ने एक ऐसे नियम की घोषणा की है जिसका एकमात्र उद्देश्य छात्रों की गतिविधियों पर पाबंदी लगाना है। इस नियम के अनुसार छात्रों को होस्टल में कोई कार्यक्रम आयोजित करने के लिए प्रशासन से एक सप्ताह पहले अनुमति लेनी होगी। छात्रों को यह भी बताना होगा कि कार्यक्रम में कितने लोग शामिल होंगे। यही नहीं, उन्हें प्रशासन को यह भी बताना होगा कि कार्यक्रम में प्रश्नोत्तर सत्र होगा या नहीं। अगर प्रशासन को लगता है कि कार्यक्रम से देश की आंतरिक सुरक्षा, राष्ट्रीय एकता आदि पर गलत असर पड़ सकता है तो वह इसे आयोजित करने की अनुमति नहीं देगा। मान लीजिए, कैंपस में उत्पीड़ित मुस्लिम, आदिवासी या अन्य कोई समूह आकर अपनी बात छात्रों के सामने रखना चाहता है तो प्रशासन इसे अपनी मर्ज़ी से 'अवांछित गतिविधि' घोषित कर सकता है। अगर समाज के दबे-कुचले वर्ग की आवाज़ को दबाने की यह साजिश कामयाब हो जाती है तो यह सचमुच भारत के प्रजातंत्र का काला अध्याय होगा।
जेएनयू में छात्रों ने न केवल 1975 के आपातकाल से लेकर गुजरात के गोधरा कांड का विरोध किया है बल्कि कैंपस में गरीब छात्रों, मज़दूरो, अल्पसंख्यकों आदि के अधिकारों के लिए भी हमेशा संघर्ष किया है और प्रशासन के विरोध और असहयोग के बावजूद सफलता पाई है। समाज के अनेक बुद्धिजीवी इस विश्वविद्यालय से बौद्धिक ऊर्जा पाते हैं और यही बात कुछ लोगों को पच नहीं रही है। प्रशासन ने जो नया नियम बनाया है उसमें यह भी कहा गया है कि कैंपस में उन फ़िल्मों के प्रदर्शन की भी अनुमति नहीं है जिन्हें सेंसर बोर्ड ने प्रमाणपत्र नहीं दिया है। कुछ फ़िल्में ऐसी होती हैं जो सेंसर बोर्ड की नज़र में विवादास्पद हो सकती हैं, लेकिन भारत का बौद्धिक केंद कहे जाने वाले जेएनयू में छात्रों को अव्यावसायिक रूप से ये फ़िल्में दिखाए जाने पर प्रशासन को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मुझे याद है कि गुजरात में हुए नरसंहार के बाद जब जेएनयू में आनंद पटवर्धन की 'फ़ाइनल सॉल्यूशन' दिखाई गई थी तब इस कैंपस में दंगों पर स्वस्थ बहस हुई थी। जेएनयू में आदिवासियों, मज़दूरों आदि के शोषण पर सैंकड़ों वृत्तचित्र दिखाए गए हैं। शायद प्रशासन यह नहीं समझ पा रहा है कि ऐसे वृत्तचित्रों या फ़िल्मों पर पाबंदी लगाकर समाज का कोई भला नहीं होने वाला है।
सत्तर के दशक में लाखों अमेरिकी छात्रों ने अपने देश की साम्राज्यवादी नीतियों का विरोध करने के लिए हड़ताल की थी। उनके इस विरोध का अमेरिकी सेना पर भी असर पड़ा था और हजा़रों सैनिकों ने वियतनाम युद्ध में भाग लेने से इनकार कर दिया था। 1954 में फ़्रांस और अल्जीरिया में हज़ारों छात्रों ने अल्जीरिया पर फ़्रांस के आक्रमण के विरोध में हड़ताल की थी। उनके इस विरोध ने अल्जीरिया में आज़ादी के संघर्ष को नई ऊर्जा दी। अल्जीरिया की आज़ादी में छात्रों ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। छात्रों के विरोध के कारण विश्व के तमाम देशों में सत्ताधारियों को अपनी नीतियाँ बदलनी पड़ी हैं। हमें सत्ता की विकृतियों की आलोचना करने वाले छात्रों की आज़ादी छिनने की हर कोशिश का विरोध करना होगा। अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा समाज धीरे-धीरे उन तमाम विकृतियों का शिकार हो जाएगा जिनकी हम अभी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं।
टिप्पणियाँ
आपने बिल्कुल सही लिखा है. जब से जे एन यु में चुनाव होने बन्द हुए हैं तब से प्रशासन लगातार छात्र विरोधी कदम उठाए जा रहा है. अब वक्त आ गया है कि जे एन यू के "लाल" इस हिटलर शाही को ध्वस्त करें. आप लोगों का सहयोग मिलता रहा तो ये जल्दी सम्भव होगा. आमीन !
We can't expect any better from this university, which going towards its demise in so short a time-span of its existence. The new generation of students simply accept all these changes in a complacent manner, their so-called protests being only symbolic in nature, not meant to bring any change.
The administration is simply taking advantage of this dying and decaying university campus.
It's sad because this university was created with a vision to make a difference in the education system.
http://laddoospeaks.blogspot.com/