कुछ तो बात है कि हस्ती नहीं मिटती जेएनयू की

अगर आप यह जानना चाहते हैं कि जेएनयू‬ में ऐसा क्या है जो इसे तमाम दूसरे विश्‍वविद्यालयों से अलग करता है तो कल हुए छात्र प्रदर्शन के बारे में सुनिए। इस विश्‍वविद्यालय के छात्रों को आज जब यह पता चला कि नौसेना में पत्नियों की अदला-बदली की लगभग संस्थागत रूप ले चुकी परंपरा का विरोध करने वाली सुजाता नाम की महिला को दिल्ली पुलिस झूठे मामले में गिरफ़्तार करके लगभग घसीटते हुए वसंत विहार थाने ले गई है तो वे बड़ी संख्या में वहाँ पहुँच गए। उनके पास न तो पोस्टर चिपकाने का समय था न सभा-सम्मेलन करने का। लेकिन इस कैंपस के जुझारू साथी बड़ी संख्या में थाने के बाहर नज़र आ रहे थे। इस भीड़ में देर तक नारा लगाने के बाद थके लेकिन जोश से भरे हुए चेहरों से टपकने वाले पसीने में आने वाले कल की आशा दिख रही थी। प्रगतिशीलता को केवल नौकरी पाने या सत्ता पाने के माध्यम के रूप में देखने वाले लोगों को इस विश्‍वविद्यालय से बहुत कुछ सीखने की ज़रूरत है। सत्ता के हर घृणित कदम पर विरोध का बिगुल बजाने की चेतना ही प्रगतिशीलता कहलाती है। इससे कम में संतुष्ट होने वाली चेतना या तो सत्ता की दलाली की ओर जाती है या अपने सीमित दायरे में खुश रहने की संकुचित भावना की ओर।

आज द हिंदू की छपी खबर से यह मालूम हुआ कि पुलिस ने सुजाता को जिया सराय में उनके किराये के घर से गिरफ़्तार करने के बाद उन्हें चप्पल तक पहनने का समय नहीं दिया और उन्हें रास्ते में लगातार थप्पड़ मारे गए। पुलिस को किसी नागरिक के साथ ऐसा व्यवहार करने का अधिकार किसने दिया? जेएनयू के साथियों का मानना है कि पुलिस गृह मंत्रालय के दबाव में सुजाता के साथ ऐसा व्यवहार कर रही है। दिल्ली में पिछले साल दिसंबर में सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद पूरे देश में आक्रोश का माहौल बन गया था। लेकिन आज उसी दिल्ली में एक महिला के साथ इतना बुरा व्यवहार करने वाले लोगों की आलोचना करने का साहस बहुत कम लोगों में दिखता है। हमारी नैतिकता ऐसे मौकों पर हमेशा कमज़ोर पड़ जाती है जहाँ शोषित या पीड़ित व्यक्ति का समर्थन करने पर पुलिसिया कार्रवाई का डर बना रहता है। ऐसे समय में जेएनयू जैसे विश्‍वविद्यालय का महत्व और बढ़ जाता है जहाँ कमज़ोर की चमड़ी का जूता पहनने की संस्कृति का विरोध करने वाली चेतना अपने मुखरतम रूप में दिखती है। इसी चेतना के कारण छात्र कभी कड़कड़ाती ठंड में बलात्कार की संस्कृति का विरोध करने के लिए सड़क पर प्रदर्शन करते हैं तो कभी अपने ही विश्‍वविद्यालय के प्रशासन की गलत नीतियों का विरोध करते हुए अपना करियर दाँव पर लगा देते हैं। विरोध की इस संस्कृति को लाखों तोपों की सलामी देनी चाहिए।   

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