आज श्रम दिवस है और मैं आर.डी. बर्मन के बारे में बात कर रहा हूँ


आज श्रम दिवस है और इस मौके पर आर.डी. बर्मन को याद करना कुछ लोगों को अटपटा लग सकता है। मैं ऐसे लोगों को पहले उनके एक गाने के बोल पढ़ने को कहूँगा।

"ऐसा क्यों होता है / कोई हँसता है, कोई रोता है / दौलत वालों के हाथों में / हर दिन हम बिकते हैं / बस्ती-बस्ती यही सबकी / तकदीरें लिखते हैं / मेरी-तेरी मेहनत का यूँ / सौदा क्यूँ होता है

मेरा-तेरा खून-पसीना सिक्कों में ढलता है / फिर भी अपने घर में चूल्हा / कम-कम ही जलता है / मेरी-तेरी जान का दुश्मन / पैसा क्यूँ होता है

जाने क्यूँ पैदा होते हैं / जाने क्यूँ मरते हैं / जब तक जीते हैं जीने का / कर्ज़ अदा करते हैं / बेमकसद-बेकार जीना / मरना क्यूँ होता है / कोई हँसता है / कोई रोता है"


लिंक : http://ww.smashits.com/player/flash/flashplayer.cfm?SongIds=50739


ऐसे गाने रेडियो पर शायद ही कभी सुनने को मिलते हैं। श्रम के शोषण से जुड़े मामलों को टीवी और रेडियों दोनों पर अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। आज मैं सभी मीडियाकर्मियों से अनुरोध करता हूँ कि वे बर्मन जैसे संगीतकार को केवल 'चुरा लिया है तुमने जो दिल को' जैसे गानों के लिए नहीं याद करें। दूसरे संगीतकारों के बारे में भी मैं यही कहना चाहूँगा। मीडिया में ऐसे गानों पर भी बात होनी चाहिए जिनमें श्रम और इसके शोषण से जुड़ी बातों को सामने लाया गया है।


आज जनसत्ता में जगदीश्वर चतुर्वेदी जी की पोस्ट छपी है जिसमें उन्होंने टीवी पर हड़ताल से जुड़ी खबरों को केवल पूँजीपतियों के दृष्टिकोण से पेश किए जाने की आलोचना की है। इन खबरों में हड़तालियों को प्रगति का विरोधी घोषित किया जाता है और पूँजीपतियों द्वारा किए जा रहे शोषण पर पर्दा डालने की कोशिश की जाती है।

आज हमें मज़दूरों के अधिकारों के लिए शहीद होने वाले व्यक्तियों को याद करना चाहिए। अगर भारत का मध्य वर्ग केवल 'चुरा लिया है तुमने' जैसे गानों पर ही झूमता रहेगा तो उसे खुद को नैतिकता का पुजारी घोषित करने का कोई अधिकार नहीं है। हम जिस संस्कृति की बात करते हैं उसकी नींव में शोषण की इतनी गंदगी दबी पड़ी है कि कोई विवेकशील मनुष्य जीवन भर अपनी नाक के बंद होने का बहाना बना ही नहीं सकता।

टिप्पणियाँ

गाना अच्छा है और जगदीश चतुर्वेदी का कहना भी। टीवी पर हड़ताल से जुड़ी खबरों को केवल पूँजीपतियों के दृष्टिकोण से पेश किया ही जाएगा। आखिर वे अपने वर्गीय स्वार्थों के खिलाफ कैसे बोल सकते हैं।
अफ़लातून ने कहा…
भली पोस्ट ,सुयश।आप गीत की कड़ी की बजाए सीधे इस ब्लॉग पर गीत दे सकते थे।
Dev K Jha ने कहा…
अच्छी पोस्ट... रेडियो पर ऐसे गानें कहां मिलेंगे अब विविध भारती का ज़माना तो रहा नहीं, अब तो ज़माना है नये टाईप के एफ़ एम स्टेशनों का....
कविता रावत ने कहा…
मेरा-तेरा खून-पसीना सिक्कों में ढलता है / फिर भी अपने घर में चूल्हा / कम-कम ही जलता है / मेरी-तेरी जान का दुश्मन / पैसा क्यूँ होता है
....bahut samvedansheel geet. Sach to yahi hai ki aaj ka majdoor majboor jyada hai.....
Saarthak prastuti ke leye dhanyavaad.....
Reflections... ने कहा…
I can only reply with another song based on a great poem by a great poet - http://www.youtube.com/watch?v=AjeAynC5xa8

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