मीडिया और साहित्य की भिड़ंत का नज़ारा
कल 'मीडिया में साहित्य की खत्म होती जगह' विषय पर हुई बहस में मुझे राजेंद्र यादव की यह बात सही लगी कि साहित्य और मीडिया की लड़ाई असल में दो वर्गों की लड़ाई है। मीडिया साधनसंपन्न वर्ग है और साहित्य हमेशा से साधनहीन वर्ग रहा है।
साधनसंपन्न वर्ग के पास साधन क्यों है, इस पर किसी वक्ता ने कुछ नहीं कहा। शायद लोग इस बात पर बहस नहीं करना चाहते हैं। किसी सज्जन ने ई-मेल करके आयोजकों से यह सवाल किया कि माओवादियों के मसले पर साहित्य जगत में भयानक चुप्पी क्यों छाई हुई है। इस सवाल का संतोषजनक जवाब देने के बदले यह कहा गया कि मीडिया में भी इस विषय पर सार्थक बहस नहीं हो रही है। मामला 'परस्परं निंदति, छी: रूपं छी: ध्वनि' का हो गया। इस बहस में मीडियाकर्मियों और साहित्यकारों के तनावपूर्ण संबंध पर भी मेरा ध्यान गया।
जब तक मीडिया पर लालची पूँजीपतियों का कब्ज़ा है तब तक इसमें साहित्य के नाम पर कूड़ा ही परोसा जाएगा। सुधीश पचौरी ने साहित्य के प्रोडक्शन (जिसे मैं हिंदी में उत्पादन लिखता हूँ) की बात की। क्या सृजन के लिए उत्पादन शब्द का प्रयोग करना सही है? उत्पादन की एक तय प्रक्रिया होती है। क्या हम यह बात साहित्य पर भी लागू कर सकते हैं?
सुधीश पचौरी ने कहा कि समय के साथ लिटरेचर (जिसे मैं हिंदी में साहित्य लिखता हूँ) का भी रूप बदला है। उन्होंने कहा कि ब्लॉग भी साहित्य है। हिंदी ब्लॉग के स्तर को देखते हुए मुझे उनकी यह बात तर्कसंगत नहीं लगती है। साहित्य की गरिमा को बनाए रखने की ज़रूरत है।
जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने ब्लॉग में शब्दों की फ़िज़ूलखर्ची का उल्लेख किया। उन्होंने यह भी कहा कि ये माध्यम लोगों को केवल अपने बारे में बताने का संस्कार दे रहे हैं।
मीडियाकर्मी रवीश कुमार ने नए माध्यमों के प्रति साहित्यकारों की उदासीनता के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि उदय प्रकाश को छोड़कर शायद ही कोई कवि ब्लॉग लिखता है।
शीबा असलम फ़हमी ने ब्लॉग, ट्विटर आदि नए माध्यमों का मूल्यांकन करने में जल्दबाज़ी नहीं करने की सलाह दी।
पूरी बहस में पीछे बैठे लोगों के सवालों और चुटकियों ने माहौल को बोझिल नहीं होने दिया। अंत में जब कार्यक्रम का समापन करते समय सुधीश पचौरी की नई किताब के बारे में जानकारी दी गई तो पीछे से एक आवाज़ आई - यही है बाज़ार...
मुझे लगता है कि मीडिया उस साहित्य को जगह नहीं दे सकता है जिसमें उसकी काली करतूतों को उजागर किया गया हो। शोषण और भेदभाव की कहानियों से मीडिया के मालिक चिढ़ते हैं, इसलिए वे ऐसी रचनाओं को प्रकाशित नहीं करते हैं।
कल की बहस का असली मुद्दा यह होना चाहिए था - 'व्यवस्था परिवर्तन में मीडिया और साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है और इसमें वे कैसे एक-दूसरे का साथ दे सकते हैं?'
कार्यक्रम में हिंदी की रोटी खाने वाले कुछ लोगों की भाषा पर भी मेरा ध्यान गया। ये लोग शायद अंग्रेज़ी में सोचकर हिंदी में उसका अनुवाद करते हुए बोल रहे थे। भाषा और समझ में बहुत गहरा संबंध होता है। सत्ता की हर बात से सहमत होने वाले लोगों की भाषा उनकी समझ की चुगली कर ही देती है। भारत में सत्ताधारी वर्ग ने अंग्रेज़ी का प्रयोग लोगों पर शासन करने और उनका शोषण करने के उपकरण के रूप में किया है। सत्ता से चिपके रहने वाले कुछ तथाकथित रचनाकार सत्ता की इस भाषा पर सौ जान से फ़िदा नज़र आते हैं।
साधनसंपन्न वर्ग के पास साधन क्यों है, इस पर किसी वक्ता ने कुछ नहीं कहा। शायद लोग इस बात पर बहस नहीं करना चाहते हैं। किसी सज्जन ने ई-मेल करके आयोजकों से यह सवाल किया कि माओवादियों के मसले पर साहित्य जगत में भयानक चुप्पी क्यों छाई हुई है। इस सवाल का संतोषजनक जवाब देने के बदले यह कहा गया कि मीडिया में भी इस विषय पर सार्थक बहस नहीं हो रही है। मामला 'परस्परं निंदति, छी: रूपं छी: ध्वनि' का हो गया। इस बहस में मीडियाकर्मियों और साहित्यकारों के तनावपूर्ण संबंध पर भी मेरा ध्यान गया।
जब तक मीडिया पर लालची पूँजीपतियों का कब्ज़ा है तब तक इसमें साहित्य के नाम पर कूड़ा ही परोसा जाएगा। सुधीश पचौरी ने साहित्य के प्रोडक्शन (जिसे मैं हिंदी में उत्पादन लिखता हूँ) की बात की। क्या सृजन के लिए उत्पादन शब्द का प्रयोग करना सही है? उत्पादन की एक तय प्रक्रिया होती है। क्या हम यह बात साहित्य पर भी लागू कर सकते हैं?
सुधीश पचौरी ने कहा कि समय के साथ लिटरेचर (जिसे मैं हिंदी में साहित्य लिखता हूँ) का भी रूप बदला है। उन्होंने कहा कि ब्लॉग भी साहित्य है। हिंदी ब्लॉग के स्तर को देखते हुए मुझे उनकी यह बात तर्कसंगत नहीं लगती है। साहित्य की गरिमा को बनाए रखने की ज़रूरत है।
जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने ब्लॉग में शब्दों की फ़िज़ूलखर्ची का उल्लेख किया। उन्होंने यह भी कहा कि ये माध्यम लोगों को केवल अपने बारे में बताने का संस्कार दे रहे हैं।
मीडियाकर्मी रवीश कुमार ने नए माध्यमों के प्रति साहित्यकारों की उदासीनता के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि उदय प्रकाश को छोड़कर शायद ही कोई कवि ब्लॉग लिखता है।
शीबा असलम फ़हमी ने ब्लॉग, ट्विटर आदि नए माध्यमों का मूल्यांकन करने में जल्दबाज़ी नहीं करने की सलाह दी।
पूरी बहस में पीछे बैठे लोगों के सवालों और चुटकियों ने माहौल को बोझिल नहीं होने दिया। अंत में जब कार्यक्रम का समापन करते समय सुधीश पचौरी की नई किताब के बारे में जानकारी दी गई तो पीछे से एक आवाज़ आई - यही है बाज़ार...
मुझे लगता है कि मीडिया उस साहित्य को जगह नहीं दे सकता है जिसमें उसकी काली करतूतों को उजागर किया गया हो। शोषण और भेदभाव की कहानियों से मीडिया के मालिक चिढ़ते हैं, इसलिए वे ऐसी रचनाओं को प्रकाशित नहीं करते हैं।
कल की बहस का असली मुद्दा यह होना चाहिए था - 'व्यवस्था परिवर्तन में मीडिया और साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है और इसमें वे कैसे एक-दूसरे का साथ दे सकते हैं?'
कार्यक्रम में हिंदी की रोटी खाने वाले कुछ लोगों की भाषा पर भी मेरा ध्यान गया। ये लोग शायद अंग्रेज़ी में सोचकर हिंदी में उसका अनुवाद करते हुए बोल रहे थे। भाषा और समझ में बहुत गहरा संबंध होता है। सत्ता की हर बात से सहमत होने वाले लोगों की भाषा उनकी समझ की चुगली कर ही देती है। भारत में सत्ताधारी वर्ग ने अंग्रेज़ी का प्रयोग लोगों पर शासन करने और उनका शोषण करने के उपकरण के रूप में किया है। सत्ता से चिपके रहने वाले कुछ तथाकथित रचनाकार सत्ता की इस भाषा पर सौ जान से फ़िदा नज़र आते हैं।
टिप्पणियाँ
I think Sahitya Srijan or Sahitya Rachana are better terms than Sahiya production or utpadan.
Blog is a powerful medium which provides people a real freedom of expression - they can write anonymously or under a pseudonym if they like.
They don't have to wear a mask before the society and speak and write only what they are expected to do, but they can really express their own ideas without feeling threatened.
In traditional social systems this freedom of expression has been suppressed and it seems that Indians have lived under an oppressive system of sycophancy, bureaucracy and the culture of paying lip service to those who matter for so long that they have not really realised the value of blogs.
In the West, freedom of expression is given utmost importance and you can see heated debates taking place on Western blogs, without any inhibitions from the people.
On the other hand, it's a monumental task to get Indians to debate on blogs - they have lived the culture of sycophancy and paying lip service and it seems they have lost the art of speaking out their mind freely on a subject - despite the fact that they can write under a fictitious name on a blog. They are too much inhibited to express themselves.
As for whether blog is literature or not, I think it is more like column writing in newspapers, not really like literature.